Natasha

Add To collaction

राजा की रानी

किन्तु, मजा यह कि जिन्होंने मुझे उस दिन बहुत-सा उपदेश दिया था कि जान-पहिचान के किसी भी आदमी की बीमारी की खबर पाकर उस मुहल्ले में पैर भी न रखना चाहिए, उन्हीं के मुदकी और गिन्नियों के बॉक्स की रखवाली करने के लिए भगवान ने मुझे नियुक्त कर दिया! नियुक्त तो कर दिया, किन्तु बाकी रात मेरी जिस तरह कटी, सो लिखकर बतलाना न तो सम्भव है और न बतलाने की प्रवृत्ति ही होती है। फिर भी, इस पर कोई पाठक अविश्वास न करेगा कि वह, मोटे तौर पर, भली तरह नहीं कटी।

दूसरे दिन 'डेथ सर्टिफिकेट' लेने, पुलिस को बुलाने, तार देने, गिन्नियों का इन्तजाम करने और मुर्दे को बिदा करने में तीन बज गये। खैर, मनोहर तो ठेलागाड़ी पर चढ़कर शायद स्वर्ग की ओर रवाना हो गये- रहा मैं, सो मैं अपने डेरे पर लौट आया। पिछले दिन तो एकादशी की ही थी- आज भी शाम हो गयी। डेरे पर लौटने पर जान पड़ा कि जैसे दाहिने कान की जड़ में सूजन आ गयी है और दर्द हो रहा है। क्या जाने, सारी रात हाथ से छेड़-छेड़कर मैंने खुद ही दर्द पैदा कर लिया है अथवा सचमुच ही गिन्नियों का हिसाब देने मुझे भी स्वर्ग जाना पड़ेगा! एकाएक कुछ नहीं समझ सका। किन्तु यह समझने में देर नहीं लगी कि बाद में चाहे जो हो, फिलहाल तो होश-हवास दुरुस्त रहने की हालत में अपनी सब व्यवस्था खुद ही कर रखनी होगी। क्योंकि मनोहर की तरह आईस बैग लेकर उठा-धरी करना न तो ठीक ही मालूम देता है और न सुन्दर। निश्चय करते मुझे देर न लगी। क्योंकि, पल-भर में ही मैंने देख लिया कि इतने बड़े बुरे रोग का भार यदि मैं किसी पुण्यात्मा साधु पुरुष के ऊपर डालने जाऊँगा तो निश्चय ही बड़ा भारी पाप होगा। किसी भले आदमी को हैरान करना कर्त्तव्य भी नहीं है-अशास्त्रीय है! इसलिए उसकी जरूरत नहीं। बल्कि, इस रंगून के एक कोने में अभया नाम की जो एक महापापिष्ठा पतिता नारी रहती है- एक दिन जिसे घृणा करके छोड़ आया हूँ, उसी के कन्धों पर अपनी इस संघातिक बीमारी का गन्दा बोझ घृणा के साथ डाल देना चाहिए- मरना ही है तो वहीं मरूँ। शायद, इससे कुछ पुण्य-संचय भी हो जाय, यही सोचकर मैंने नौकर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया।
♦♦ • ♦♦

उस दिन जब मृत्यु का परवाना हाथ में लेकर मैं अभया के द्वार पर जा खड़ा हुआ, तब मुझे मरने की अपेक्षा मरने की लाज ने ही अधिक भय दिखाया। अभया का मुँह फक् सफेद पड़ गया। किन्तु, उसके सफेद होठों से केवल यही शब्द फूटकर बाहर निकले, “तुम्हारा दायित्व मैं न लूँगी तो और कौन लेगा? यहाँ तुम्हारी मुझसे बढ़कर और किसे गरज है?” दोनों ऑंखों में पानी भर आया, फिर भी मैंने कहा, मैं तो बस चल दिया। रास्ते का कष्ट मुझे उठाना ही होगा, उसे निवारण करने की शक्ति किसी में भी नहीं है। किन्तु जाते समय तुम्हारी इस नयी घर-गिरस्ती के बीच इतनी बड़ी विपत्ति डालने का अब किसी तरह भी मन नहीं होता। अभया, अभी गाड़ी खड़ी है, होश-हवास दुरुस्त हैं- अब भी अच्छी तरह प्लेग-हॉस्पिटल तक जा सकता हूँ। तुम केवल मुहूर्त-भर के लिए जी कड़ा करके कह दो, “अच्छा जाओ।” अभया ने कोई उत्तर दिये बिना हाथ पकड़ लिया और मुझे बिछौने में ले जाकर सुला दिया। अब, उसने अपने ऑंसू पोंछे और मेरे उत्तप्त ललाट पर धीरे-धीरे हाथ फेरते हुए कहा, “यदि तुमसे 'जाओ' कह सकती, तो नये सिरे से यह घर-गिरस्ती कायम न करती आज से मेरी नयी गिरस्ती सचमुच की गिरस्ती हुई।”

किन्तु, बहुत सम्भव है कि वह प्लेग नहीं था। इसीलिए, मृत्यु केवल जरा-सा परिहास करके ही चली गयी। दसेक दिन में मैं उठ खड़ा हुआ। किन्तु, अभया ने फिर मुझे होटल के डेरे में नहीं लौटने दिया।

ऑफिस जाऊँ या और भी कुछ दिन छुट्टी लेकर विश्राम करूँ, यह सोच ही रहा था कि एक दिन ऑफिस का चपरासी एक चिट्ठी दे गया। खोलकर देखी तो प्यारी की चिट्ठी है। बर्मा आने के बाद उसका यही एक पत्र मिला। जवाब न मिलने पर भी मैं कभी-कभी उसे पत्र लिख दिया करता था- आते समय यही शर्त मुझसे उसने करा ली थी। पत्र के प्रारम्भ में ही इसका उल्लेख करके उसने लिखा था, “मेरे मरने की खबर तो तुम जरूर पाओगे। जीते-जी मेरा ऐसा कोई समाचार ही नहीं हो सकता जिसे जाने बिना तुम्हारा काम न चले। लेकिन, मेरे लिए तो ऐसा नहीं है। मेरे सारे प्राण तो मानो विदेश में ही निरन्तर पड़े रहते हैं। यह बात इतनी अधिक सत्य है कि तुम भी इस पर विश्वास किये बगैर नहीं रह सकते। इसीलिए उत्तर न पाने पर भी बीच-बीच में तुम्हें चिट्ठी देकर बतलाना पड़ता है कि तुम वहाँ अच्छी तरह हो।

“मैं इस महीने के भीतर ही बंकू का विवाह कर देना चाहती हूँ। तुम अपनी सम्मति लिखना। तुम्हारी इस बात को मैं अस्वीकार नहीं करती कि कुटुम्ब के भरण-पोषण की शक्ति हुए बगैर विवाह होना उचित नहीं है। बंकू में अभी तक यह क्षमता नहीं आई; फिर भी, क्यों मैं इसके लिए तुम्हारी सम्मति चाहती हूँ सो मुझे और एक बार अपनी ऑंखों देखे वगैर तुम नहीं समझोगे। जैसे भी बने यहाँ आ जाओ। तुम्हें मेरे सर की कसम है।”

पत्र के पिछले हिस्से में अभया की बात थी। अभया ने जब लौट आकर कहा था कि जिसे मैं चाहती हूँ- प्रेम करती हूँ, उसकी गिरस्ती बसाने के लिए मैं एक पशु का त्याग करके चली आई हूँ, और इसी विषय को लेकर सामाजिक रीति-नीति के सम्बन्ध में स्पर्धा के साथ उसने बहस की थी तब उससे मैं इतना विचलित हो उठा था कि प्यारी को बहुत-सी बातें लिख डाली थीं। आज उन्हीं का प्रत्युत्तर उसने दिया है-

“तुम्हारे मुँह से यदि वे मेरा नाम सुन चुकी हो तो अनुरोध है कि तुम उनसे एक बार मिलना और कहना कि राजलक्ष्मी ने तुम्हें सहस्र-कोटि नमस्कार लिखे हैं। उम्र में वे मुझसे छोटी हैं या बड़ी सो मैं नहीं जानती, जानना जरूरी भी नहीं है, वे केवल अपनी तेजस्विता के कारण ही मेरे समान स्त्री के द्वारा वन्दनीय हैं। आज मुझे अपने गुरुदेव के श्रीमुख की कुछ बातें बार-बार याद आती हैं। मेरे काशी के मकान में दीक्षा की सब तैयारियाँ हो गयी हैं, गुरुदेव आसन ग्रहण करके स्तब्ध भाव से कुछ सोच रहे हैं। मैं आड़ में खड़ी बहुत देर तक उनके प्रसन्न मुख की ओर एकटक देख रही हूँ। एकाएक भय के मारे मेरी छाती के भीतर उथल-पुथल मच गयी। उनके पैरों के पास औंधे पड़कर मैंने रोते हुए, 'बाबा, मैं मन्त्र नहीं लूँगी।” वे विस्मित होकर मेरे सिर पर अपना दाहिना हाथ रखकर बोले, “क्यों न लोगी?'

“मैंने कहा, 'मैं महापापिष्ठा हूँ।'

“उन्होंने बीच में ही रोककर कहा; 'ऐसा है, तब तो मन्त्र लेने की और भी अधिक जरूरत है बेटी।'

“रोते-रोते मैंने कहा, 'लाज के मारे मैंने अपना सच्चा परिचय नहीं दिया है, देती तो आप इस मकान की चौखट भी लाँघना पसन्द नहीं करते।'

“गुरुदेव मुस्कु'राकर बोले, 'नहीं, तो भी मैं लाँघता, और दीक्षा देता। प्यारी के मकान में भले ही न आता; किन्तु अपनी राजलक्ष्मी बेटी के मकान में क्यों न आऊँगा बेटी?'

“मैं चौंककर स्तब्ध हो गयी। कुछ देर चुप रहकर बोली, 'किन्तु, मेरी माँ के गुरु ने तो कहा था कि मुझे दीक्षा देने से पतित होना पड़ेगा- सो बात क्या सच नहीं थी?'

“गुरुदेव हँसे। बोले, 'सच थी इसलिए तो वे दे नहीं सके बेटी। किन्तु, जिसे वह भय नहीं है, वह क्यों नहीं देगा?'

“मैंने कहा, “भय क्यों नहीं हैं?”

“वे फिर हँसकर बोले, 'एक ही मकान में जो रोग के कीटाणु एक आदमी को मार डालते हैं, वे ही कीटाणु दूसरे आदमी को स्पर्श तक नहीं करते- बतला सकती हो क्यों?'

“मैंने कहा, 'शायद स्पर्श तो करते हैं, किन्तु, जो लोग सबल हैं वे बच जाते हैं; जो दुर्बल होते हैं वे मारे जाते हैं।'

“गुरुदेव ने मेरे सिर पर पुन: अपना हाथ रखकर कहा, 'इस बात को किसी दिन भी मत भूलना बेटी। जो अपराध एक आदमी को मिट्टी में मिला देता है, उसी अपराध में से दूसरा आदमी स्वच्छन्दता से पार हो जाता है। इसलिए सारे विधि-निषेध सभी को एक डोरी में नहीं बाँध सकते।”'

“संकोच के साथ मैंने धीरे से पूछा, 'जो अन्याय है, जो अधर्म है, वह क्या सबल और दुर्बल दोनों के निकट समान रूप से अन्याय-अधर्म नहीं है? यदि नहीं है, तो यह क्या अविचार नहीं है?”

“गुरुदेव बोले, “नहीं बेटी, बाहर से चाहे जैसा दीखे, उनका फल समान नहीं है। यदि ऐसा होता तो संसार में सबल-दुर्बल में कोई अधिक भेद ही नहीं रहता। जो विष पाँच वर्ष के बच्चे के लिए घातक है, वही विष यदि इकतीस वर्ष के मनुष्य को न मार सके तो दोष किसे दोगी बेटी? किन्तु, यदि आज तुम मेरी बात पूरी तरह न समझ सको, तो, कम-से-कम इतना जरूर याद रखना कि जिन लोगों के भीतर आग जल रही है और जिनमें केवल राख ही इकट्ठी होकर रह गयी है- उनके कर्मों का वजन एक ही बाट से नहीं किया जा सकता। यदि किया जाए, तो गलती होगी।”

“श्रीकान्त भइया, तुम्हारी चिट्ठी पढ़कर आज मुझे अपने गुरुदेव की वही भीतर की आग वाली बात याद आ रही है। अभया को नजर से देखा नहीं है, फिर भी ऐसा लगता है कि उनके भीतर जो आग जल रही है उसकी ज्वाला का आभास चिट्ठी के भीतर से भी जैसे मैं पा रही हूँ। उनके कर्मों का विचार जरा सावधानी से करना। मेरे जैसी साधारण स्त्री के बटखरे लेकर उनके पाप-पुण्य का वजन करने न बैठ जाना।”

चिट्ठी को अभया के हाथ में देकर कहा, “राजलक्ष्मी ने तुम्हें शत-सहस्र नमस्कार लिखा है, यह लो।”

अभया, जो कुछ लिखा था उसे दो-तीन बार पढ़कर और किसी तरह पत्र को मेरे बिछौने पर डालकर, तेजी से बाहर चली गयी। दुनिया की नजरों में उसका जो नारीत्व आज लांछित और अपमानित हो रहा है, उसी के ऊपर शत योजना दूर से एक अपरिचिता नारी ने सम्मान की पुष्पांजलि अर्पण की है, उसी की अपरि सीमा आनन्द-वेदना को वह एक पुरुष की दृष्टि से बचाकर चटपट आड़ में ले गयी।

करीब आधा घण्टे बाद अभया अच्छी तरह मुँह-ऑंखें धोकर लौट आई और बोली, “श्रीकान्त भइया...”

मैंने रोककर कहा, “अरे यह क्या! 'भइया' कब से हो गया?”

“आज से ही।”

“नहीं नहीं, 'भइया' नहीं। तुम सब लोक मिलकर सभी ओर से मेरा रास्ता बन्द न कर देना!”

अभया ने हँसकर कहा, “मालूम होता है, मन ही मन कोई मतलब गाँठ रहे हो, क्यों?”

“क्यों, क्या मैं आदमी नहीं हूँ?”

अभया बोली, “बेढब आदमी दीखते हो। बेचारे रोहिणी बाबू ने बीमारी के समय आसरा दिया; अब चंगे होकर, जान पड़ता है, उन्हें यही पुरस्कार देना निश्चय किया है। किन्तु, मेरी बड़ी भूल हो गयी। उस समय बीमारी का एक तार दे देती, तो आज उन्हें देख लेती।”

मैंने गर्दन हिलाकर कहा, “आश्चर्य नहीं कि वह आ जाती।”

अभया क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, “तुम एकाध महीने की छुट्टी लेकर एक बार चले जाओ, श्रीकान्त भइया। मुझे जान पड़ता है, तुम्हारी उन्हें बड़ी जरूरत हो रही है।”

न जाने कैसे खुद भी मैं इस बात को समझ रहा था कि मेरी उसे बड़ी जरूरत है। दूसरे ही दिन ऑफिस को चिट्ठी लिखकर मैंने और एक महीने की छुट्ठी ले ली और आगामी मेल से यात्रा करने के विचार से टिकट खरीदने के लिए आदमी भेज दिया।

जाते समय अभया ने नमस्कार करके कहा, “श्रीकान्त भइया, एक वचन दो।”

“क्या वचन दूँ बहिन?”

“पुरुष संसार की सभी समस्याओं की मीमांसा नहीं कर सकते। यदि कहीं अटको तो चिट्ठी लिखकर मेरी राय जरूर ले लोगे, बोलो?”

मैं स्वीकार करके जहाज-घाट जाने के लिए गाड़ी पर जा बैठा। अभया ने गाड़ी के दरवाजे के निकट खड़े होकर और एक दफे नमस्कार किया; बोली, “रोहिणी बाबू के द्वारा मैंने कल ही वहाँ टेलीग्राम करा दिया है। किन्तु, जहाज पर कुछ दिन अपने शरीर की ओर जरा नजर रखना श्रीकान्त भइया, इसके सिवाय मैं तुमसे और कुछ नहीं चाहती।”

'अच्छा' कहकर मैंने मुँह उठाकर देखा कि अभया की ऑंखों की दोनों पुतलियाँ पानी में तैर रही हैं।

   0
0 Comments